मुनि तरूण सागर ने संतों की महिमा में बहुत ही सुंदर कहा है- “संत सौंदर्य के सितार पर सद्भाव का संगीत हैं, विकृति के बाजार में संस्कृति का शंखनाद हैं.” हम भारत की आध्यात्मिक परंपरा को ठहरकर देखते हैं तो संतों की उपस्थिति निश्चय ही सुमंगल का उद्घोष करती है. अमृत वाणी की तरह हमारी आत्मा में उतरती है. दिलचस्प यह कि पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी जो स्वर्ण युग की तरह हमारी स्मृतियों में है, संत कवियों के महागान से ही गुंजायमान है. सुखद विस्मय होता है कि शब्द और संगीत की यह परस्परता समय के लंबे अंतराल में न तो क्षीण हुई न गैरजरूरी और न ही बेअसर. मनुष्यता के मंत्र गाती यह वाणी आज भी भारत की रूह में बह रही है. बुझी, बेचैन और हताश जि़ंदगी भक्ति के गहरे भाव सागर में डूबती-उतराती समाधान के माणिक-मोती खोजती रही है.
बहुकला केंद्र भारत भवन ने अपने एक प्रतिष्ठा आयोजन का नाम ही ‘संत वाणी’ रखा है. भारत के अनेक अग्रणी, गुणी और युवा गायकों ने इस मंच पर अपनी हाजि़री दी है. ऐसे आयोजन संत साहित्य के साथ ही संगीत की आध्यात्मिक रंजनकारी शक्ति को समझने का भी अवकाश देते हैं. मुनि तरूण सागर को पुनः याद करें, तो उनका कहा ध्यान में आता है, संत, प्यार की पेढ़ी पर परमात्मा की प्रार्थना हैं. वे सदाचरण के आशीष हैं. जागरण के ताबीज हैं. अविश्वास और अनास्था के अंधेरों में वो उम्मीद का उजियारा हैं. अर्थहीन आवाजों के बीहड़ में जीवन के मंत्र गाती वाणी हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि आज सच्चे संत की तलाश बहुत ही कठिन है. समय का यह अज़ीब दौर है जब संत परंपरा की सौगंध लेकर सामाजिक जनजागरण के पथ पर चल निकले एक बड़े समुदाय का दृश्य हमारे सामने है. इनमें से अधिकांश संत वचनों में तो आदर्श जीवन मूल्यों का बखान करते सुने जा सकते हैं लेकिन आचरण में उनका बोला शब्द नदारद है. इसलिए शताब्दियों पहले कहे गए उन शब्दों पर भरोसा होता है जो आचरण और व्यवहार में अपने अर्थ तलाशते रहे और लोक ने उन्हें स्वीकार किया.
ये सच है कि सिद्ध शक्तियों से स्पंदित उनकी चेतना अनंत उपकारों के लिए फैल जाती है. मनुष्यता मुस्कुरा उठती है और उदासियों के सूखे- बंजर वक्ष पर जीवन की क्यारियों में हरियाली लौट आती है. समय के सुदूर विस्तार तक फैला जीवन ही अगर रहस्यों से भरा चमत्कार है तो इस दिव्य लीला की सूत्रधार कोई अतिमानवीय शक्ति है. वो सुपर पावर, जो ब्रह्मांड के अस्तित्व का केंद्र है और जो अंश-अंश जीवन और प्रकृति में मौजूद है. एक महान साधक की कठिन तपस्या इसी अतिमानवीय शक्ति को उच्च धरातल पर जाकर अपने अंतःकरण में संचित करती है. रहस्य का परदा दूर हो जाता है. उसके नेत्रों में त्रिकाल की रोशनी बिखर जाती है. उसके लिए सत्य और असत्य का भेद मिट जाता है. वह शुभ और कल्याण की सनातन कामना से भरकर मानवीय सेवा का मार्ग प्रशस्त करता है.सच्चे साधक की यही तो परिभाषा है. तमाम विचलनों, भ्रांतियों और छद्म सिद्धियों से मंडित मूर्तियों के इस संसार में सौभाग्य से सच्ची साधक-विभूतियां भी मनुष्य के रूप में अवतरित होती रही हैं. वे किसी दरवेश की तरह दुनिया में आते हैं और अपने समय में फैले सारे गुबार को पोंछकर समता, ममता और एकता का पैगाम दे जाते हैं.
ऐसे ही साधकों के रूप में हम कबीर, सूर, तुलसी, नानन, रैदास, दादू और मीरा को याद करते हैं. भक्ति और प्रेम में आकंठ डूबी उनकी आत्मा में हमेशा करुणा का जल बहता रहा. शास्त्र और सिद्धांतों की जटिल गुत्थियों से परे उनकी स्वयंप्रज्ञा ने जीवन को आनंद का उत्सव ही माना. इसे ही परमपद की तरह हासिल किया और शरण में आए भक्तों के जीवन में आशीर्वाद की तरह समा गए. श्रुति कहती है कि मानव देह, अनंत की यात्रा पर निकली आत्माएं हैं. तन, उनका साधन एक अस्थाई कुटिया जिसमें कुछ समय ठहर कर, वो साधना करती है और फिर बंजारों की बस्ती की तरह, अपनी बसाहट के निशान छोड़कर आगे बढ़ जाती हैं. शरीर ‘हम-उम्र’ हो सकते हैं, एक ही कालखंड में वो अपने जन्म और मृत्यु को छू सकते हैं किंतु ‘हम-उम्र’ शरीर में बसने वाली आत्माओं की उम्र अलग-अलग होती है. उनकी प्रकृति और जन्म जन्मांतर की यात्रा में उनके संचित तप, अलग-अलग होते हैं. हमारे ही शरीर की तरह सामान्य दिखने वाले शरीर में ऋषि आत्माएं भी उतरती हैं.
हमारी सामान्य दृष्टि, उन्हें सामान्य मनुष्य की तरह देखती है. अपनी आध्यात्मिक यात्रा में, वो अपनी तन की कुटिया छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं किंतु उनका जीवन और वाणी उनका सही परिचय बनकर इस दुनिया में ठहर जाते हैं. और फिर इस ठहराव के आसपास अनगिनत आस्थाएं, सिर झुकाती हैं, जिंदगी की उलझनें अपने समाधान तलाशती हैं, जीवन के दुःख अपने निवारण ढूंढते हैं. एक संत हृदय, करूणा की धारा बन, अनगिनत लोगों के जीवन को छूता है. संत उस शीतल दरिया की तरह ही होते हैं, जो सभी को एक सी पनाह देते हैं. उसकी न कोई जाति होती है, न कोई धर्म वह तो भक्ति का साधक होता है. भक्ति भारत की आदिम धरोहर है, जो जीवन की धन्यता के गीत गाती है. चारों दिशाओं में फैला है इसका उजियारा. दक्षिण में त्यागराज से लेकर महाराष्ट्र के तुकाराम, उत्तर के कबीर-तुलसी से लेकर राजस्थान के रैदास-मीरा और पंजाब के नानक से लेकर असम के शंकर देव तक सैकड़ों संत विभूतियों रहीं जिनके संदेशों को आज तक परंपरा के संगीत ने हम तक पहुंचाया है. चलते-फिरते फकीरों और जनपद के गायकों से लेकर भारत की रत्न विभूतियों सुब्बलक्ष्मी, पं. भीमसेन जोशी, जसराज, कुमार गंधर्व, किशोरी आमोणकर, राजन-साजन मिश्र, पुरूषोत्तम दास जलोटा, हरिओम शरण, जगजीत सिंह, शुभा मुद्गल, अनूप जलोटा और आरती अंकलीकर तक यह परंपरा अपनी व्यापकता में सबको समोती सुकून का पैगाम देती रही है. जब तक जीवन है, मनुष्य है, यह पवित्र पुकार हमारी आत्मा के आसन पर इबादत की तरह महकती रहेगी.
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये ऋषि आत्माएं ईश्वर की वो संतान होती हैं जिन्हें प्रसिद्ध गुजराती संत कवि नरसी मेहता ने वैष्णवजन कहा. पराई पीर जिनसे सही नहीं जाती. दूसरों का दुःख देखते ही उनके भीतर विकल करूणा बहती है और उनकी अर्जित शक्तियां स्वतः लोक मंगल, लोक कल्याण की दिशा में काम करने लगती हैं, जिन्हें अपनी साधारण समझ और दृष्टि से देखकर हम ‘चमत्कार’ कह बैठते हैं. जबकि वो करूणा से उपजी ‘ऋषि इच्छा’ का स्वाभाविक, साकार होता है.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.

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